संविधान दिवस पर विशेष: संविधान एक ऐसा दस्तावेज़ है जो देश के नागरिकों को देश की संप्रभुता पर विश्वास बनाए रखने का एकमात्र साधन है। अनुच्छेद 14 में समानता का अधिकार है जो सुनिश्चित करता है कि किसी नागरिक के साथ किसी भी प्रकार की असमानता नहीं होगी तो वहीं अनुच्छेद 19 जीवन के सम्पूर्ण विकास का ध्यान रखते हुए हमें कुछ ऐसे मौलिक अधिकार देता है जिसके बिना न तो देश और न ही किसी व्यक्ति का विकास हो सकता है। संविधान अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के सभी पहलुओं को छूने वाले अधिकारों की बात करता है, जिसका उच्चतम न्यायालय ने इतनी व्यापक व्याख्या की है कि जीवन के साथ गरिमा रखने, निजता के अधिकार, गोपनीयता के अधिकार जैसे अनेक आवश्यक अधिकार मिलते हैं।
ये भी पढ़ें- अब क्यों चुप है विपक्ष ?
अंबेडकर ने ‘संविधान दिवस की आत्मा’ की संज्ञा दी
इतना ही नहीं इसके बाद भी संविधान अनुच्छेद 25 के अंतर्गत धार्मिक स्वतंत्रता देकर यह सुनिश्चित करता है कि भारत का हर नागरिक अपने धर्म को अपने मन मुताबिक अभ्यस्त कर सकता है। इन सभी अधिकारों को स्पर्शसूत्र बनाया जा सकता है। अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 226 जो देश के नागरिकों को सुनिश्चित करता है कि किसी भी मौलिक अधिकार के उल्लंघन के लिए वह व्यक्ति सीधे उच्चतम न्यायालय या उच्च कोर्ट में अपनी गुहार लगा सकता है। उपर्युक्त अनुच्छेद में पाँच प्रकार की रिट बताई गई हैं जिसके माध्यम से नागरिक अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित होती है। अनुच्छेद 32 को बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर ने ‘संविधान की आत्मा’ की संज्ञा दी है। आज संविधान दिवस के अवसर पर आइए जानते हैं कि अगर हमारे मूलभूत अधिकारों का कोई उल्लंघन होता है तो संविधान में इसके लिए क्या उपाय हैं। इसे जानने के लिए हमें संविधान के अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 226 को जानना आवश्यक है।
ये भी पढ़ें- आलेख: समान नागरिक संहिता का औचित्य
बंदी प्रत्यक्षीकरण, हेबास कोर्पस, एक कानूनी शब्द है जो लैटिन भाषा से उत्पन्न हुआ है, जिसका शाब्दिक अर्थ है “तुम शरीर को प्रकट करो”। हेबास कोर्पस एक कानूनी उपाधि है जो व्यक्ति को उसकी स्वतंत्रता से छीने जाने के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करती है। इसे एक प्रकार की याचिका के रूप में समझा जा सकता है जिसमें व्यक्ति यह कहता है कि वह ग़ैरक़ानूनी रूप से किसी जगह पर बंदी बनाए गए है और उसे मुक्ति दिलाई जाए। हेबास कोर्पस की यह उपाधि भारतीय संविधान में भी शामिल है और यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण है। इसका उपयोग व्यक्ति को उसकी ग़ैरक़ानूनी बंदिशों के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करने के लिए किया जाता है ताकि न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से उसे मुक्ति मिल सके। यह याचिका अदालत में दाखिल की जाती है, और अगर यह सिद्ध होता है कि व्यक्ति को ग़ैरक़ानूनी रूप से बंदी बनाए जाने का कोई वैध कारण नहीं है, तो अदालत उसे मुक्ति दिला सकती है। हाल ही में चल रहे चर्चित मामले का उदाहरण, यदि आज शाइस्ता परवीन को उनके बच्चों को ढूंढ़ना है और उन्हें आशंका है कि उनकी मां पुलिस की हिरासत में है, तो वे “हेबियस कॉर्पस” रिट का उपयोग कर सकते हैं। इस राइट के तहत, वे लोग अदालत में एक आवेदन डाल सकते हैं जिसमें उन्हें अपनी मां की मुख्य रूप से हिरासत में होने का संदेह है और वे चाहते हैं कि पुलिस उन्हें जल्दी से जल्दी अदालत में पेश करें या उनकी मुक्ति कराएं।
ये भी पढ़ें- हमास के समर्थक देश के लिए खतरे की घंटी हैं!
दूसरा परमादेश एक कानूनी उपाधि है जो किसी अधिकारी, सरकारी अधिकारी, या सरकारी संस्था को किसी कार्य को करने के लिए कोर्ट से निर्देशित करने के लिए इस्तेमाल होती है। इसे लैटिन शब्द “मंडेमस” से लिया गया है, जिसका अर्थ है “हमें दिखाओ” या “निर्देशित करो”। मंडेमस राइट का उपयोग विभिन्न प्रकार के निर्णयों के लिए किया जा सकता है, जैसे कि अव्यवस्थितता, अन्यायपूर्णता, या किसी अधिकार की ना-पालना के मामले में। इसका उपयोग विशेषतः सरकारी अधिकारियों और संस्थाओं के प्रति जवाबदेही की मांग करने के लिए किया जाता है। उदाहरण के लिए, हम इसे ऐसे समझ सकते हैं कि जैसे अगर सरकार ने कोई नई योजना के तहत कोई योजना बनाई है, मगर उस योजना का लाभ आपको या आपके इलाक़े में उस योजना का लाभ नहीं मिल रहा है तो आप रिट ऑफ़ मैंडेमस के तहत जिम्मेदार सार्वजनिक प्राधिकृति को निर्देशित करवा सकते हैं कि वह आपके हित में योजना के तहत आपको लाभ प्रदान करें।
ये भी पढ़ें- मुसलमानों का एक ही टारगेट है भारत का इस्लामीकरण।
उत्प्रेषण एक अन्य एक कानूनी उपाधि है जिसका उपयोग न्यायिक प्रक्रिया के निर्णयों की समीक्षा के लिए किया जाता है। इस उपाधि का उपयोग उच्चतम न्यायालय द्वारा किया जाता है जब कोई न्यायिक निर्णय विधिक तरीके से नहीं हुआ है या फिर जब कोई न्यायिक निर्णय उसके अधिकारों की उल्लंघन करता है। सर्टिओरारी राइट का उपयोग किसी न्यायिक निर्णय की ग़लती को सुधारने और उच्चतम न्यायालय में उसे समीक्षा के लिए किया जाता है। इसका अर्थ होता है “हमें देखने का आदिकार दो” या “उच्चतम न्यायालय में समीक्षा के लिए आदेश दो”। जब यह राइट जारी की जाती है, तो न्यायिक निर्णय को देखने के लिए एक नया न्यायिक प्रक्रिया शुरू होती है और उच्चतम न्यायालय उसे समीक्षा करता है कि क्या उस निर्णय में कोई ग़लती है और क्या वह विधिक तरीके से हुआ है या नहीं। अगर कोई ग़लती पाई जाती है, तो उच्चतम न्यायालय न्यायिक निर्णय को रद्द कर सकता है और नया निर्णय देने का आदेश कर सकता है। उदाहरण के लिए, इसे ऐसे समझा जा सकता है कि अगर आप किसी कॉलेज में पढ़ाई कर रहे हैं और आपको किसी कारण वश सस्पेंड कर दिया गया हो, अब क्योंकि कॉलेज एक सार्वजनिक कार्य को निष्पादित कर रहा है और उसके दिए गए निर्णय से आपको नकारात्मक प्रभावित हो रहे हैं, तो आप “सर्टिओरारी” राइट की याचिका प्रस्तुत कर सकते हैं और अगर अदालत को लगता है कि निर्णय गलत है, तो वह उस निर्णय को निरस्त करने के लिए उचित कार्यवाही के लिए कॉलेज या संबंधित प्राधिकृति को निर्देशित कर सकती है।
ये भी पढ़ें- Gandhi Jayanti 2023: भारत में सुशासन और पर्यावरण: गांधीवादी नज़रिया
निषेध जिसे अंग्रेजी में प्रोहिबिशन राइट कहते हैं। यह न्यायिक प्रक्रिया में अनियमितता या ग़लती को रोकने के लिए उपयोग होती है। इसका उपयोग उच्चतम न्यायालय द्वारा किया जाता है जब कोई न्यायिक निर्णय विधिक तरीके से नहीं हुआ है, या जब कोई न्यायालय अपने अधिकारों को पारित करता है जो उसे नहीं मिलते हैं। प्रोहिबिशन राइट का उपयोग अधिकतर उच्चतम न्यायालय में किया जाता है, लेकिन कई बार यह उच्चतम न्यायालय के बजाय उच्चतम न्यायिका अधिकारीयों द्वारा भी किया जा सकता है। इस उपाधि का उपयोग तब किया जाता है जब किसी न्यायिक निर्णय में विधिक तरीके से ग़लती होती है, या जब कोई न्यायालय अपने अधिकारों का अत्यंत पारित करता है जिसका उसे कोई अधिकार नहीं होता। यह उपाधि उस न्यायिक निर्णय को रोकने के लिए जारी की जाती है और आमतौर पर न्यायिक प्रक्रिया को बाधित कर देती है जिससे ग़लत न्यायिक निर्णयों का प्रभाव रोका जा सकता है। उदाहरण स्वरूप, यह याचिका तब तैयार होती है जब अगर आपके मुकदमे में कोई संबंधित कोर्ट का अधिकार नहीं हो, और वह फिर भी उसकी कार्यवाही कर रही हो, तो सुपीरियर कोर्ट लोअर कोर्ट को रोकने के लिए आदेश प्रदान कर सकती है।
ये भी पढ़ें- सनातन के समापन की नाकाम महत्वाकांक्षा!
अंतिम में अधिकार पृच्छा अथार्त क्वो वारेन्टो एक कानूनी उपाधि है जिसका उपयोग एक व्यक्ति या संगठन के अधिकार और पद पर विराजमान रहने की वैधता की जाँच करने के लिए किया जाता है। इस उपाधि का अर्थ होता है “किस अधिकार के तहत?” या “किस अधिकार से?” और यह एक व्यक्ति को उस पद पर रहने के लिए योग्यता की पुनरावृत्ति की जांच करने का अधिकार प्रदान करती है। जब भी किसी व्यक्ति या संगठन की योग्यता पर संदेह होता है और अन्य व्यक्तियों या संगठनों द्वारा इसकी चुनौती दी जाती है, तो क्वो वारेन्टो का उपयोग किया जा सकता है। इस तरह की प्रक्रिया से सुनिश्चित किया जाता है कि सबकुछ विधिक तरीके से हो रहा है और कोई भी अव्यवस्था नहीं हो रही है। क्वो वारेन्टो का उपयोग सामाजिक, नागरिक, या सरकारी पदों पर रहने वाले व्यक्तियों के खिलाफ किया जा सकता है, जैसे कि नेता, अधिकारी, या अन्य अधिकारियों के खिलाफ। यह उपाधि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रदान की जाती है और इसका उपयोग न्यायिक निर्णयों की योग्यता की जांच के लिए किया जा सकता है। इस राइट के अंतर्गत, आप किसी संवैधानिक पद पर नियुक्त हुए अधिकारी से उसकी नियुक्ति की वैधता पूछ सकते हैं, जिससे अगर वह बताने में असमर्थ रहा है तो उससे मान्यता प्राप्त न्यायालय उस पद से हटा सकता है।
आलेख- आदित्य शंकर मिश्र
अधिवक्ता, इलाहाबाद उच्च न्यायालय